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हेल्थ

चींटियों के डंक से पीलिया का इलाज

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रायपुर। बस्तर में पाए जानेवाली चींटी (चापड़ा) आदिवासी पीलिया पीड़ित मरीजों को डंक मारती है तो इनमें मौजूद बिलरूबिन (पित्तजनक) रासायनिक क्रिया के जरिए बिलुबर्डिन में बदल जाती है। इससे पीलिया मरीज के शरीर में पीलापन कुछ कम नजर आता है, यह बात शोध में सामने आई है।

बस्तर के आदिवासी अंचल के ग्रामीण वर्षो से पीलिया होने पर चापड़ा से इलाज करते हैं। यही नहीं चापड़ा की चटनी का उपयोग करते हैं, साथ ही साथ पेट की बीमारियों सहित कंजक्टिवाइटिस का भी इसी से इलाज करते आ रहे हैं। बस्तर विश्वविद्यालय की एक शोधार्थी माधवी तिवारी बस्तर के आदिवासियों द्वारा चापड़ा चींटी से पीलिया का इलाज करने की मान्यता को परखने लिए शोध कर रही हैं। चापड़ा चींटी का वैज्ञानिक नाम इकोफिला स्मार्ग डिना है।

बस्तर के आदिवासी शरीर के प्रमुख अंग लीवर को प्रभावित करने वाले -पीलिया- का इलाज दवाई से नहीं चींटियों से करते हैं। रक्तरस में पित्तरंजक (बिलरूबिन) नामक रंग होता है, जिसकी अधिकता से त्वचा और श्लेष्मिक कला में पीला रंग आ जाता है। इसी दशा को पीलिया कहते हैं। सामान्यत: रक्तरस में बिलरूबिन का स्तर एक प्रतिशत या इससे कम होता है किंतु जब इसकी मात्रा 2.5 प्रतिशत के ऊपर हो जाती है तो पीलिया के लक्षण प्रकट होते हैं।

शोधार्थी माधवी तिवारी बस्तर विश्वविद्यालय में शिक्षिका है। उनका कहना है कि आदिवासी पीलिया का इलाज करने चापड़ा नामक चींटियों को पीड़ित मरीज के शरीर पर छोड़ते हैं। अध्ययन में पता चला है कि चापड़ा के डंक से शरीर में बनने वाले पिंग्नामेंटेशन का रंग बदल जाता है, जिससे शरीर में पीलापन कम होता दिखाई देता है। माधवी ने बस्तर के बड़ेमुरमा, गोलापल्ली और करंजी में सरपंचों के सहयोग से पीलिया पीड़ितों पर इसका प्रयोग किया है।

अध्ययन के मुताबिक, इन चींटियों में फार्मिक एसिड होता है। जब पीलिया के मरीजों के शरीर में चीटिंयों को छोड़ा जाता है तो इससे शरीर के पिग्मेंट में स्त्रोत होने वाले बिलरूबिन से ऑक्सीडेशन होते पाया गया है। बिलरूबिन रासायनिक क्रिया के जरिए विलुबर्डिन में बदल जाता है। इससे हरे रंग की अधिकता होती है। इसलिए पीलिया पीड़ित के शरीर में पीलापन कुछ समय कम नजर आता है। वैसे बस्तर के आदिवासी चींटी का उपयोग कंजेक्टिवाइटिस, पेट की बीमारियों के लिए भी करते हैं।

ज्ञात हो कि बस्तर के आदिवासियों के भोजन के साथ चापड़ा की चटनी (लाल चींटें) खासतौर पर लजीज और औषधीय मानी जाती है। ग्रामीणों में ‘चापड़ा की चटनी’ इतनी अधिक लोकप्रिय है कि बस्तर के हाट-बाजारों में बेचा जाता है। ग्रामीणों में मान्यता है कि इस चापड़ा चटनी के सेवन से मलेरिया, डेंगू बुखार भी ठीक हो जाता है। बस्तर के जंगलों में लाल चींटों चापड़ा पेड़ों में पाए जाते हैं। ग्रामीण जंगल जाकर पेड़ के नीचे, गमछा, कपड़ा आदि बिछाकर पेड़ की शाखाओं को हिलाते हैं, जिससे चापड़ा नीचे गिरते हैं और उन्हें इकट्ठा कर बाजार में बेचा जाता है या घर में चटनी के रूप में उपयोग किया जाता है।

 

लाइफ स्टाइल

दिल से जुड़ी बीमारियों को न्योता देता है जंक फूड, इन खाद्य पदार्थों से करें परहेज  

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Junk food invites heart related diseases, avoid these foods

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नई दिल्ली। अनियमित लाइफ स्टाइल व तला भुना जंक फूड दिल से जुड़ी बीमारियों की मुख्य वजह बन गया है। स्टडीज़ के अनुसार, अगर आप अपने दिल की सेहत में सुधार करना चाहते हैं, तो इन 4 तरह के खाने से दूरी बना लें।

तला हुआ खाना

कई शोध से पता चला है कि सैचुरेटेड फैट्स शरीर में बैड कोलेस्ट्ऱॉल की मात्रा को बढ़ाने का काम करते हैं। रेड मीट, फ्रेंच फ्राइज़, सैंडविच, बर्गर आदि जैसे फूड्स LDL यानी बैड कोलेस्ट्रॉल का स्तर बढ़ाते हैं, जिससे स्ट्रोक और दिल के दौरे का ख़तरा बढ़ जाता है।

चीनी युक्त सोडा या फिर केक

चीनी को मीठा ज़हर ही कहा जाता है। केक, मफिन, कुकीज़ और मीठी ड्रिंक्स शरीर में सूजन का कारण बनते हैं। चीनी का ज़्यादा सेवन शरीर में फैट्स बढ़ाता है, जिससे डायबिटीज़, हार्ट अटैक और स्ट्रोक का खतरा बढ़ता है।

लाल मांस

रेड मीट सैचुरेटेड फैट्स से भरपूर होता है, जिसकी वजह से धमनियों में प्लाक जम सकता है। जिनको मटन खाने का शौक है, उन्हें वह हिस्सा खाना चाहिए जिसमें ज़्यादा प्रोटीन और कम फैट हो। अगर आप चिकन खा रहे हैं तो ब्रेस्ट, विंग्ज़ वाला हिस्सा में ज़्यादा प्रोटीन होता है और कम फैट। वहीं, मछली सबसे हेल्दी और अच्छा ऑप्शन है।

सफेद चावल, ब्रेड या फिर पास्ता

सफेद ब्रेड, मैदे, चीनी और प्रोसेस्ड तेल को मिलाकर तैयार किए जाने वाले फूड्स में किसी भी तरह का फायदा नहीं होता। ऐसा ही सफेद पास्ता के साथ भी है। सफेद चावल में फाइबर की मात्रा कम होती है, इसलिए दिल की सेहत के लिए इसका ज़्यादा सेवन नहीं किया जाना चाहिए।

 

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