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भारत-अफ्रीका सम्मेलन : नई साझेदारियों पर होगी चर्चा

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नई दिल्ली| अफ्रीका के साथ अभी तक की अपनी सबसे बड़ी कूटनीतिक पहल ‘भारत-अफ्रीका समिट 2015’ की मेजबानी के लिए भारत तैयार है। इस महीने 26 से 29 अक्टूबर तक चलने वाले इस शिखर सम्मेलन का उद्देश्य न सिर्फ इतिहास साझा करना है, बल्कि भारत-अफ्रीका संबंधों को अधिक मजबूत बनाने के लिए नई साझेदारियां भी विकसित करनी हैं। आधिकारिक सूत्रों के अनुसार, इस शिखर सम्मेलन में व्यापार, निवेश, तकनीक, कौशल विकास और कई ऐसी कारोबारी संभावनाओं पर चर्चा होनी है, जिनके बारे में अभी तक चर्चा नहीं की गई है।

उच्च पदस्थ एक सूत्र ने बताया कि 26-29 अक्टूबर तक चलने वाले इस चार दिवसीय शिखर सम्मेलन में सरकारों के प्रमुखों, मंत्रियों, सरकारी अधिकारियों, कारोबारी दिग्गजों और अन्य गणमान्य व्यक्तियों सहित लगभग 1000 प्रतिनिधियों के शिरकत करने की संभावना है।

यह पहला मौका है, जब भारत ने इस शिखर सम्मेलन के लिए सभी 54 अफ्रीकी देशों के प्रमुखों को आमंत्रित किया है। इस मंच का यह तीसरा सम्मेलन है और यह पूर्व में आयोजित दोनों सम्मेलनों -नई दिल्ली (2008) और अदिस अबाबा (2011) के मुकाबले ज्यादा भव्य और ऐतिहासिक होगा।

सूत्र ने कहा कि इस मंच पर होने वाली महत्वपूर्ण चर्चाओं में 72 अरब डॉलर के मौजूदा व्यापार को 2020 तक बढ़ाकर दोगुना करना भी शामिल है। इसके साथ ही भारत अगले पांच साल के दौरान अफ्रीका में अपना निवेश मौजूदा 36 अरब डॉलर से बढ़ाकर 70 अरब डॉलर करने पर भी चर्चा करेगा।

सूत्र ने बताया कि सम्मेलन में समन्वय ढांचे को भी अंतिम रूप दिया जाएगा, जिसके तहत आर्थिक सहयोग और व्यापारी संबंधों के साथ ही प्रत्येक प्रतिभागी देश की अर्थव्यवस्था के विकास के लिए जरूरी मुद्दों पर खासा ध्यान दिया जाएगा।

सूत्र के अनुसार, सहयोग का एक और महत्वपूर्ण क्षेत्र है शांति एवं सुरक्षा, जो अफ्रीका में अफ्रीकी संघ शांति एवं सुरक्षा परिषद द्वारा की गई प्रगति और संयुक्त राष्ट्र की शांति बहाल करने की गतिविधियों में भारत की बढ़ती प्रतिभागिता व अफ्रीकी क्षेत्र में शांति व सुरक्षा बनाए रखने में भारत के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए विशेष तौर पर महत्वपूर्ण हो जाता है।

उल्लेखनीय है कि दक्षिण अफ्रीका और भारत का रिश्ता काफी मजबूत है। दोनों देशों के बीच कई लाख डॉलर मूल्य का व्यापार होता है। भारत से दक्षिण अफ्रीका को होने वाले निर्यात में दवाएं, रसायन, इंजीनियरिंग उत्पाद, जिसमें इलेक्ट्रिकल मशीनरी और पेट्रोलियम उत्पाद प्रमुख हैं। दक्षिण अफ्रीका से भारत आयात होने वाले उत्पादों में कीमती धातुएं जैसे सोना, खनिज जिसमें कोयला, लौह एवं इस्पात, खनन उपकरण और औद्योगिक रसायन प्रमुख हैं।

सूत्र ने कहा कि पिछले कुछ साल के दौरान दक्षिण अफ्रीका और भारत के व्यापारिक एवं निवेश संबंधों में बदलाव आया है और निकट भविष्य में इसमें खासा विकास की संभावना है। वर्ष 2011-12 में द्विपक्षीय कारोबार 15.70 अरब डॉलर था। इसके बाद के वर्षो में इसमें गिरावट दर्ज की गई, लेकिन 2014-15 में यह बढ़कर 11.79 अरब डॉलर हो गया, जबकि 2013-14 में यह 11.14 अरब डॉलर था।

सूत्र के अनुसार, निवेश के मोर्चे पर भारतीय और दक्षिण अफ्रीकी कंपनियां काफी दिलचस्पी दिखा रही हैं और निवेश की नई संभावनाएं तलाश रही हैं। वर्ष 2014 तक भारत ने दक्षिण अफ्रीका में कुल 7.2 अरब डॉलर का निवेश किया था और दक्षिण अफ्रीका ने भारत में करीब 1.5 अरब डॉलर लगाए थे। दोनों देशों की सरकारों द्वारा उठाए गए कदमों के कारण आने वाले वर्षो में द्विपक्षीय व्यापार एवं निवेश में वृद्धि की संभावना है।

सूत्र ने कहा कि दक्षिण अफ्रीकी अर्थव्यवस्था भले ही चुनौतियों का सामना कर रही है और विश्व बैंक व दक्षिण अफ्रीकी रिजर्व बैंक ने आर्थिक विकास का लक्ष्य घटा दिया है, लेकिन इस देश में कई खूबियां हैं, जिनका फायदा उठाकर इस चुनौतीपूर्ण स्थिति से निपटा जा सकता है।

पिछले सप्ताह विश्व आर्थिक मंच ने 2015 वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मक सूचकांक में कहा था, “दक्षिण अफ्रीका में इस द्वीप का सबसे सक्षम वित्तीय बाजार (12/140) है और अच्छे बाजार से (38/140) काफी फायदा होता है, जिसे रफ्तार देती है मजबूत घरेलू प्रतिस्पर्धा (28/140)।”

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लोकसभा के शोले और रहीम चाचा की खामोशी

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सच्चिदा नन्द द्विवेदी एडिटर-इन-चीफ

हिन्दी सिनेमा की कालजई फिल्म शोले के रहीम चाचा का किरदार आपको जरूर याद होगा। उनका एक डायलॉग था जिसमें वो कहते है “इतना सन्नाटा क्यूँ है भाई” उस वक्त पूरे रामगढ़ में किसी के पास इसका जवाब नहीं था, कमोवेश ठीक वैसे ही हालात इस वक्त लोकसभा चुनाव में नजर आ रहे हैं। लोकसभा के चुनाव के दो चरण पूरे हो चुके हैं पर पूरे देश में कहीं भी ऐसा नजर नहीं आता कि हम अगले पाँच साल के लिए अपने नुमाइंदे चुनने जा रहे हैं। एक अजीब खामोशी नुमायाँ है। गांव, कस्बों और शहरों तक में होर्डिंग और पोस्टर नजर नहीं आ रहे हैं और न ही कानफोडू लाऊडस्पीकर पर वोट मांगने वालों का शोर सुनाई दे रहा है, चाय की टपरी और पान के खोखों पर जमा होने वाली भीड़ अपने होंठों को सिले हुए है।

एक वक्त था जब हम लोग चाय की टपरी, पान की दुकान और रास्तों के ढाबों से देश का मूड भांप लेते थे। मतदाताओं के मन में क्या चल रहा है इसका अंदाज लगाना आसान था। लेकिन आज स्थिति उलट है इन जगहों पर खड़ा आम आदमी आपसे ही उल्टा पूछ लेता है ‘और क्या चल रहा है’ इंसान-इंसान के बीच अविश्वास की खाई इतनी गहरी हो गई है कि वो पब्लिक प्लेस पर अब राजनीतिक बात करने से गुरेज करने लगा है। वोटर अपने मन की बात जुबान पर नहीं लाना चाहता हैं क्यूंकी अब वो रेडियो पर ‘मोदी जी’ के मन की बात सुन रहा है और अपने मन की बात अपने मन में रखे हुए है। उसे डर है और ये डर मिश्रित चुप्पी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा लक्षण नहीं है।

लोकसभा चुनाव के पहले चरण की तरह दूसरे चरण में भी वोटिंग 2019 के मुकाबले कम हुई है। पहले चरण में 21 राज्यों की 102 लोकसभा सीटों पर 64 प्रतिशत वोटिंग हुई थी। जबकि पिछले लोकसभा चुनाव में उन सीटों पर भी 70 प्रतिशत से ज्यादा मतदान हुआ था। ऐसे ही इस बार दूसरे चरण में 13 राज्यों की 88 लोकसभा सीटों पर करीब 63 फीसदी वोट पड़े। यह 2019 के लोकसभा चुनाव में 70.09% मतदान के मुकाबले काफी कम था। यूपी, बिहार, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में वोटिंग उम्मीद से काफी कम रही। यूपी में 54.85%, बिहार में 55.08% , महाराष्ट्र में 57.83% , एमपी में 57.88 % वोटिंग हुई। सबसे अधिक वोट त्रिपुरा, मणिपुर, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में पड़े। लोकसभा चुनाव के तीसरे चरण में सात मई को वोटिंग है। इसमें 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की 95 सीट पर मतदान होगा, जिसके लिए 1351 उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं।

जब 7 मई, 13 मई, 20 मई, 25 मई और 1 जून को तीसरे, चौथे, पांचवे, छठे और सातवें चरण का मतदान होगा तो इस दौरान देश के अधिकतर हिस्सों में गर्मी के साथ लू का असर दिखाई देगा। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के आंकड़ों से पता चलता है कि लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार के दौरान लगभग 72% निर्वाचन क्षेत्रों में अधिकतम तापमान 35°C या इससे अधिक हो सकता है। विशेष रूप से, 59 सीटों पर 40-42 डिग्री सेल्सियस के बीच तापमान का सामना करना पड़ सकता है। जबकि 194 सीटों पर 37.5-से 40 डिग्री सेल्सियस के बीच तापमान देखा जा सकता है। लेकिन इस गर्मी के बीच क्षेत्रीय दलों के नेता काफी तेजी से अपने इलाके के मतदाताओं पर पकड़ बना रहे हैं और उन सवालों को उठा रहे हैं जिनसे देश का किसान, मजदूर और नौजवान चिंतित है। इसलिए उनके प्रति आम जनता की अपेक्षाएं बढ़ी हैं इसलिए विपक्षी गठबंधन के नेताओं की रैलियों में भारी भीड़ आ रही है। जबकि भाजपा की रैलियों का रंग उसके मुकाबले फीका नजर या रहा है।

हालांकि रैली में आने वाली भीड़ जीत का पैमाना नहीं होती इसलिए कुछ कहा नहीं जा सकता। हर दल का अपना एक समर्पित काडर होता है। जबकि आज काडर के नाम पर ज्यादातर दलों के पास सत्ता के छत्ते से चिपकी रहने वाली मधुमक्खी ही ज्यादा नजर या रहीं है ये वो लोग हैं जिन्हें सत्ता की दलाली करने के अवसरों की तलाश होती है। राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ जिसके पास काडर है कार्यकर्ता हैं वो भी खामोश नजर आ रहा है। बहरहाल लगातार कम होते मतदान ने नेताओं की धुकधुकी बढ़ा रखी है। सत्ता पक्ष मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए परेशान है तो विपक्ष कम प्रतिशत को अपने पक्ष में मानकर मुंगेरीलाल के सपने बुनने में मगन है।

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