आध्यात्म
भक्ति धाम-मनगढ़ में प्रथम शिला स्थापना समारोह संपन्न
मनगढ़ (कुण्डा, प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश)। श्री भक्ति धाम-मनगढ़ में जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की स्मृति में एक अभूतपूर्व मन्दिर का निर्माण कार्य प्रगति पर है। सात अप्रैल को जगद्गुरु कृपालु परिषत् की अध्यक्षा सुश्री डा. विशाखा त्रिपाठी जी एवं सुश्री डा. श्यामा त्रिपाठी जी व सुश्री डा.कृष्णा त्रिपाठी जी के सान्निध्य में इटली के सफेद संगमरमर से निर्मित होने वाले इस मन्दिर का प्रथम शिला स्थापना समारोह सम्पन्न हुआ।
वेदमंत्रों की प्रतिध्वनि के मध्य मन्दिर के सफेद संगमरमर की प्रथम शिला स्थापित की गई। तत्पश्चात् सभी भक्तों ने आरती व परिक्रमा की और अन्त में प्रसाद वितरण हुआ।
शाश्वत भाव से सदा सर्वदा मुक्त यदाकदा हमारे इस ग्रह पर जहां जीवन भी है, ऐसे दिव्य व्यक्तित्व के स्वामियों का जन्म होता है जिनका मकसद होता है जनकल्याण। जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज ऐसी ही परम पावन दिव्य व अलौकिक व्यक्ति थे, जिन्हें उनके शिष्यों के बीच “श्रीमहाराजजी” नाम से ही पुकारा जाता है।
उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जनपद की कुण्डा तहसील के एक छोटे से गाँव मनगढ़ में 22 अक्टूबर 1922 शरत पूर्णिमा की रात को श्रीमहाराजजी का जन्म हुआ। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के स्वामी श्रीमहाराजजी 14 साल की अल्प आयु में ही काशी ,चित्रकूट और इंदौर विश्वविद्यालयों में अध्ययन के लिए पहुंचे। ढाई साल की अल्पावधि में ही उन्होंने वहां कई पाठ्यक्रम संपन्न किये।
सोलह बरस की उम्र में पढ़ाई लिखाई से अलग होकर चित्रकूट के सघन जंगलों में पहुँच गए। जहां राधाकृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम में समाधिस्थ हो गए। कई-कई दिनों तक आप इस अवस्था में अन्न-जल ग्रहण नहीं करते थे जैसे बाहरी चेतना से आपका संपर्क ही टूट जाता हो अन्तश्चेतना शेष रह जाती हो।
जनवरी 1957 में काशी विद्वत परिषत ने श्रीमहाराजजी को संभाषण के लिए आमंत्रित किया था। इस संस्था से वैदिक साहित्य के शीर्ष 500 अध्येयता जुड़े रहे हैं। सभी ने मुक्त कंठ से माना श्रीमहाराजजी सबसे अग्रणी हैं आध्यात्मिक ज्ञान और वैदिक साहित्य के अंतिम आगार हैं। इसी संभाषण श्रृंखला के दौरान विद्वत परिषत ने आपको जगद्गुरु के ओहदे से विभूषित किया। इसी संस्था ने श्रीमहाराजजी को जगदगुरुत्तम (Supreme amongst all Jagadgurus ) भी घोषित किया। 15 नवंबर 2013 को श्रीमहाराजजी इस लोक को छोड़कर गोलोकवासी हो गए।
आध्यात्म
आज पूरा देश मना रहा रामनवमी, जानिए इसके पीछे की पूरी पौराणिक कहानी
नई दिल्ली। आज पूरे देश में रामनवमी का त्यौहार बड़ी धूम धाम से मनाया जा रहा है। पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक इस दिन भगवान राम का जन्म हुआ था। जो विष्णु का सातवां अवतार थे। रामनवमी का त्यौहार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाया जाता है। आइये जानते हैं इसके पीछे की पौराणिक कहानी।
पौराणिक कथाओं के मुताबिक भगवान राम ने भी मां दुर्गा की पूजा की थी, जिससे कि उन्हें युद्ध के समय विजय मिली थी। साथ ही माना जाता है इस दिन गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस की रचना का आरंभ किया। राम नवमी का व्रत जो भी करता है वह व्यक्ति पापों से मुक्त होता है और साथ ही उसे शुभ फल प्रदान होता है
रामनवमी का इतिहास-
महाकाव्य रामायण के अनुसार अयोध्या के राजा दशरथ की तीन पत्नियां थी। कौशल्या, सुमित्रा और कैकयी। शादी को काफी समय बीत जाने के बाद भी राजा दशरथ के घर किसी बालक की किलकारी नहीं गूंजी थी। इसके उपचार के लिए ऋषि वशिष्ट ने राजा दशरथ से पुत्र प्राप्ति के लिए कमेश्टी यज्ञ कराने के लिए कहा। जिसे सुनकर दशरथ खुश हो गए और उन्होंने महर्षि रुशया शरुंगा से यज्ञ करने की विन्नती की। महर्षि ने दशरथ की विन्नती स्वीकार कर ली। यज्ञ के दौरान महर्षि ने तीनों रानियों को प्रसाद के रूप में खाने के लिए खीर दी। इसके कुछ दिनों बाद ही तीनों रानियां गर्भवती हो गईं।
नौ माह बाद चैत्र मास में राजा दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या ने भगवान राम को जन्म दिया, कैकयी ने भरत को और सुमित्रा ने दो जुड़वा बच्चे लक्ष्मण और शत्रुघन को जन्म दिया। भगवान विष्णु ने श्री राम के रूप में धरती पर जन्म इसलिए लिया ताकि वे दुष्ट प्राणियों का नरसंहार कर सके।
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