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बिहार की सियासत में बढ़ी मुसलमानों की हिस्सेदारी

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पटना। बिहार की राजनीति में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व क्रमिक रूप से सिमटता जा रहा था, हालांकि नए समीकरण के बाद इस विधानसभा चुनाव में सियासत में उनकी हिस्सेदारी बढ़ी है। औसत के रूप में देखा जाए तो यह संख्या अब भी कम मानी जा रही है।

पिछले विधानसभा चुनाव में 19 मुस्लिम उम्मीदवार विधानसभा की चौखट तक पहुंच सके थे, लेकिन इस चुनाव में इनकी संख्या बढ़कर 23 हो गई है। इनमें राष्ट्रीय जनता दल (राजद) से सबसे अधिक 11 मुस्लिम उम्मीदवार जीते हैं। जनसंख्या के हिसाब से देखा जाए तो इनकी संख्या अभी भी कम है। 2011 की जनगणना के अनुसार, मुसलमानों की आबादी 16.9 फीसदी है। आबादी की कसौटी पर विधानसभा में करीब 40 मुस्लिम जनप्रतिनिधियों को पहुंचना चाहिए था।

आंकड़ों पर गौर करें तो राज्य में मुस्लिम आबादी करीब 17 प्रतिशत है और यहां 13 लोकसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां मुसलमानों की आबादी 18 से 44 प्रतिशत के बीच है। किशनगंज लोकसभा क्षेत्र में 69 प्रतिशत के करीब मुसलमान हैं। विधानसभा क्षेत्र की बात की जाए तो 50 से ज्यादा ऐसे विधानसभा क्षेत्र हैं, जहां अल्पसंख्यक मतों का ध्रुवीकरण चुनाव परिणाम को प्रभावित करता है। इन क्षेत्रों में मुसलमानों के वोट न्यूनतम 18 फीसदी और अधिकतम 75 फीसदी हैं। कोचाधामन विधानसभा क्षेत्र में अल्पसंख्यकों की 74 फीसदी आबादी है।

ऑल इंडिया उलेमा बोर्ड के प्रवक्ता बादशाह खान का कहना है कि देश की बात हो या राज्य की बात हो सभी राजनीतिक दल मुसलमानों के वोट तो चाहते हैं, लेकिन प्रतिनिधित्व देने से हिचकते हैं। बिहार के इस चुनाव में भी मुसलमानों के वोट के लिए सभी दलों ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया था। इस चुनाव में सत्ताधारी महागठबंधन राजद से 11, जनता दल (युनाइटेड) से पांच तथा कांग्रेस से छह और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सएवादी-लेनिनवादी)से एक मुस्लिम प्रत्याशी विजयी घोषित हुए हैं। दूसरी तरफ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) से कोई भी मुस्लिम प्रत्याशी विधानसभा तक नहीं पहुंच सका।

इसके अलावा असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने भी पहली बार बिहार के चुनाव में हिस्सा जरूर लिया, लेकिन इसका एक भी प्रत्याशी नहीं जीत सका। आंकड़ों पर गौर करें तो आजादी के बाद हुए पहले विधानसभा चुनाव में मुस्लिम विधायकों की संख्या 24 थी, तब से लेकर 1977 तक मुस्लिम विधायकों की संख्या 18 और 28 के बीच रही। इस दौरान आठ विधानसभा चुनाव हुए थे।

बिहार विधानसभा के लिए 1985 में हुए चुनाव में मुस्लिम विधायकों की संख्या बढ़कर 34 पर पहुंच गई थी, जिसमें 29 विधायक कांग्रेस की टिकट पर जीतकर विधानसभा तक पहुंचे थे। हालांकि, इसके अगले चुनाव में मुस्लिम विधायकों की संख्या घटकर 20 तक आ गई थी, जिसमें कांग्रेस के सिर्फ पांच विधायक थे। फरवरी, 2005 में हुए चुनाव में 24 मुस्लिम विधायकों ने राज्य विधानसभा की सियासत में भागीदारी निभाई, लेकिन इसी साल अक्टूबर में हुए चुनाव में मुस्लिम विधायकों की संख्या घटकर 16 हो गई थी।

नेशनल

पहले फेज के वोटर ने बिगाड़ा मोदी का मूड

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सच्चिदा नन्द द्विवेदी एडिटर-इन-चीफ

लखनऊ। लोकसभा चुनाव 2024 का पहला चरण बीत गया। सात चरण में हो रहे चुनावों का ये सबसे बड़ा और पोलिटिकल पार्टीज के लिए लिटमस टेस्ट वाला चरण था। उत्तर प्रदेश की 8 सीटें वो थी जिन पर 2019 में भाजपा का पसीना छूट गया था।

जिस दिन अयोध्या में मर्यादा पुरषोत्तम राम के भव्य राम मंदिर में प्रभु राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा हुई और उसे देख जिस तरह का जन-ज्वार उठा उससे गदगद होकर प्रधानमंत्री पीएम मोदी ने भाजपा और सहयोगी दलों के लिए 18वीं लोकसभा के लिए टारगेट सेट कर दिया 400 सीटों का और नारा दे दिया ‘अबकी बार 400 पार’। दरअसल ये 400 का टारगेट मोदी ने यूं ही नहीं सेट कर दिया। इसके पीछे कहीं न कहीं बीजेपी का कान्फिडन्स और विपक्ष को मानसिक दवाब में घेरने की रणनीति नजर आती है।

शुरुआत में जिस तरह से इंडि गठबंधन बिखरा बिखरा दिखाई दे रहा था उसे देखकर बीजेपी का ये टारगेट कठिन भी नजर नहीं आ रहा था लेकिन जैसे जैसे कयामत की रात यानि मतदान की तारीख पास आती गई विपक्षियों को भी अपने अस्तित्व पर संकट नजर आने लगा और फिर मरता क्या न करता के मुहावरे पर अमल करते हुए सभी एक हो ही गए। दूसरी तरफ बीजेपी को 2014 और 2019 की तरह मोदी मैजिक और राम के नाम पर भरोसा था और उधर उसके वोटर के मन में अबकी बार 400 पार इतना गहरा बैठ गया था कि लगता है उसका वोटर भी घर में बैठ गया और जो मतदान प्रतिशत 2019 में करीब 69 प्रतिशत था वो करीब 60 प्रतिशत पर आकर टिक गया। यानि 9 फीसदी वोटर गर्मी में ac की हवा खा रहा था।

फिर क्या था इन्हीं 9 प्रतिशत मतदाताओं ने सत्तारूढ़ दल यानि मोदी के माथे पर चिंता की सिलवटें ला दी, लेकिन ऐसा नहीं है ये सिलवटें सिर्फ मोदी के माथे पर ही आईं हों ये लकीरें विपक्षी गठबंधन के नेताओं के माथे पर भी थीं और हो भी क्यूँ नहीं क्योंकि evm खुलने के पहले कोई नहीं जानता कि जो वोटर घर में बैठा था वो आखिर कौन था। क्या वो सरकार से नाराज वो व्यक्ति था जिसे विपक्ष मतदान केंद्र तक लाने में सफल नहीं हो पाया या फिर ये वो आदमी था जिसे ये लग रहा था मैं वोट दूँ या न दूँ क्या फरक पड़ता है आएगा तो मोदी ही।

दरअसल उदासीनता की वजह को भी जानना जरूरी है-

2014 में बदलाव की लहर थी जनता भ्रष्टाचार की कहानियाँ सुनकर ऊब चुकी थी
2014 में मोदी पूरे देश के सामने गुजरात मॉडल लेकर आ रहे थे जिसे सोशल मीडिया के धुरंधरों ने हर फोन तक बखूबी पहुंचाया
2014 में मोदी ने जिस तरह देश को अपनी सभाओं से मथ के रख दिया उसका भी जनता पर काफी असर पड़ा
2019 में पुलवामा कांड ने राष्ट्रवाद को जगाया और 2014 में 282 सीट वाली बीजेपी 303 के आँकड़े पर पहुँच गई
लेकिन 2024 में न तो 2014 जैसे एंटी इन्कमबंसी जैसी लहर है और न 2019 जैसा राष्ट्रवाद जैसा

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