Connect with us
https://www.aajkikhabar.com/wp-content/uploads/2020/12/Digital-Strip-Ad-1.jpg

नेशनल

आडवाणी के बयान का निहितार्थ

Published

on

भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी,आपातकाल संबंधी बयान में बहस की बहुत बड़ी संभावना,मनमोहन सिंह,राजीव गांधी, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, पीवी नरसिंह राव, एचडी देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी

Loading

भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने आपातकाल संबंधी बयान में बहस की बहुत बड़ी संभावना छोड़ी है। सभी पार्टियां अपनी-अपनी सुविधा से इसकी व्याख्या कर रही हैं। इसमें क्षेत्रीय दल भी कूद चुके हैं। खासतौर पर इस बयान ने भाजपा विरोधी पार्टियों को हमले का एक मौका दिया है, लेकिन विपक्षी पार्टियां आडवाणी के पूरे बयान को पढ़ती तो शायद उनकी खुशी इस तरह सामने नहीं आती। आडवाणी ने साफतौर पर आपातकाल के बाद बनी सभी सरकारों की चर्चा की है। उनके बयान के इस अंश पर खास ध्यान देना होगा। उन्होंने कहा, ‘मैं नहीं समझता कि आपातकाल के बाद ऐसा कुछ किया गया जो आश्वस्त करता हो कि नागरिक स्वतंत्रता का फिर हनन नहीं होगा।’ जाहिर है कि इसमें 1977 से लेकर आज तक की सभी सरकारें शामिल हैं। मोरारजी देसाई, चरण सिंह, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, पीवी नरसिंह राव, एचडी देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और अब नरेंद्र मोदी, सभी की सरकारें इस बयान के दायरे में हैं। अटल सरकार में अडवाणी नंबर दो की स्थिति में थे। उस सरकार के पूरे कार्यकाल में गृह मंत्रालय उनके पास था। जाहिर है, उन्होंने अपने को भी बरी नहीं किया है। बयान की पहली बात यह कि इसमें विपक्ष के लिए खुश होने की कोई बात नहीं है।

जिस अवधि की चर्चा उन्होंने की है, उसमें सर्वाधिक समय तक कांग्रेस की सरकार ही रही है। इसमें भी राजीव गांधी और पीवी नरसिंह राव को पूरे एक-एक और मनमोहन सिंह को लगातार दो कार्यकाल तक सरकार चलाने का अवसर मिला था। इसमें 1980 में बनी इंदिरा गांधी की सरकार को जोड़ लें, तो पता चलेगा कि इस अवधि में चौबीस वर्ष कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार रही है। दूसरी तरफ, भाजपा की बात करें तो छह वर्ष अटल बिहारी प्रधानमंत्री रहे, नरेंद्र मोदी को अभी इस पद पर एक वर्ष हुआ है। इस तरह यह अवधि सात वर्ष की हुई। जनता पार्टी सरकार में अटल विदेश मंत्री और आडवाणी सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे। तब आडवाणी ने विपक्षी पार्टियों को आकाशवाणी से चुनाव प्रचार का मौका दिया था। आडवाणी के ताजा बयान को लेकर कांग्रेस वर्तमान केंद्र सरकार पर निशान कैसे लगा सकती है। नरेंद्र मोदी की सरकार ने तो अभी एक वर्ष ही पूरा किया है। आडवाणी करीब चार दशक की बात कर रहे हैं। विपक्ष ने आडवाणी के पूरे बयान को पढ़ने की जहमत ही नहीं उठाई। इसीलिए उन्होंने जल्दीबाजी में बयान से सहमति जता दी। विपक्ष ने सतही तौर पर बयान को देखा और मान लिया कि इसमें वर्तमान सरकार की आलोचना की गई है। कहा गया कि आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी अपनी उपेक्षा से आहत हैं, जबकि आडवाणी इसी बयान में कहते हैं, ‘मैं आज यह नहीं कहता कि राजनीतिक नेतृत्व परिपक्व नहीं है, लेकिन यह विश्वास नहीं है कि आपातकाल फिर नहीं हो सकता।’ लेकिन जिस बयान में करीब चार दशकों के क्रियाकलाप को समेटा गया, विपक्ष ने उसमें से अपनी प्रतिक्रिया के लिए केवल वर्ष को अलग निकाल लिया। कांग्रेस प्रवक्ता ने कहा- वह मोदी के शासन के दौरान आपातकाल जैसी स्थिति की ओर इशारा कर रहे हैं।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस बयान का अपने ढंग से अर्थ निकाला। उन्होंने कहा कि आडवाणी जी के बयान को खारिज नहीं किया जा सकता, दिल्ली में इसका पहला प्रयोग हो रहा है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी इस बयान के बाद लगा कि वह हर दिन आपातकाल जैसी स्थिति का सामना कर रहे हैं। कांग्रेस से अपना राजनीतिक जीवन शुरू करने वाले आज के सपा नेता नरेश अग्रवाल भी पीछे कहां रहते, उन्होंेने कहा कि देश में अभी जो व्यवस्था चल रही है, कहीं न कहीं इससे तानाशाही व्यवहार झलक रहा है। कम्युनिस्ट पार्टियां भी मोदी सरकार के एक वर्ष को ध्यान में रखकर टिप्पणी कर रही है। पश्चिम बंगाल के अपने तीस वर्षीय शासन पर इन्होंने विचार नहीं किया, जब इनके कैडर विरोधियों के साथ अक्सर हिंसक रूप में पेश आते हैं। जाहिर है कि आडवाणी के बयान की अलग-अलग व्याख्या हो रही है। यह ठीक है कि उन्होंने आपातकाल की संभावना को समाप्त करने की दिशा में हुए प्रयासों को पर्याप्त व प्रभावी नहीं माना। उन्होंने किसी एक सरकार को इसके लिए दोषी नहीं माना। फिर भी आडवाणी जैसे वरिष्ठ व अनुभवी नेता को कहीं अधिक स्पष्ट बयान देना चाहिए था।

संविधान संशोधन के जरिए आपातकल लगाने की व्यवस्था को पहले के मुकाबले कठिन बनाया गया है। वर्ष 1977 के चुनाव परिणाम भी नजीर की तरह है। यानी व्यावहारिक और सैद्धांतिक, दोनों दृष्टि से आपातकाल लगाना कठिन है। कोई भी सरकार इसका जोखिम उठाने से बचेगी। ऐसे में अडवाणी को यह अवश्य बताना चाहिए था कि वह संविधान में इसके मद्देनजर किस तरह का और बदलाव चाहते हैं। वह स्वयं लोकसभा के सदस्य हैं। संविधान संशोधन प्रस्ताव लाने का उन्हें पूरा अधिकार है। वैसे यह मानना पड़ेगा कि अनेक प्रदेशों में राजनीतिक असहिष्णुता बढ़ी है। सत्ता के विरोध में उठने वाली आवाज को दबाने का प्रयास होता है। इस प्रवृत्ति को दूर करना होगा। जहां तक केंद्र की मोदी सरकार का प्रश्न है, उसने केंद्रीय कार्यालयों में मंत्री से लेकर संतरी तक, सभी को समय से आने के लिए प्रेरित किया है, भाई-भतीजावाद पर अंकुश लगाया है, सत्ता के गलियारे से दलालों को हटाया है, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया है। ये फैसले पिछले समय को देखते हुए कठोर लग सकते हैं, लेकिन इनसे एक न्यायोचित, वैधानिक लोक कल्याणकारी व भ्रष्टाचार मुक्त कार्यसंस्कृति विकसित होगी। यदि इस आदर्श कार्य संस्कृति में किसी को आपातकाल दिखता हो, तो उसे सबसे पहले आत्मचिंतन करना चाहिए।

नेशनल

दूसरे चरण में धार्मिक ध्रुवीकरण के समीकरण का चक्रव्यूह भेद पाएंगे मोदी!

Published

on

Loading

सच्चिदा नन्द द्विवेदी एडिटर-इन-चीफ

लखनऊ। राजस्थान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्व पीएम डॉ. मनमोहन सिंह के बयान का जिक्र करते हुए कहा कि अगर कांग्रेस केंद्र में सत्ता में आती है, तो वह लोगों की संपत्ति लेकर मुसलमानों को बांट देगी. इसके बाद ही विकास की रफ्तार पर चलने वाला चुनाव दूसरे चरण के पहले हिन्दू मुस्लिम के बीच बंट गया है। दरअसल मोदी का ये बयान यूं ही नहीं आया है, दूसरे चरण में जहां जहां मतदान होना है वहाँ की बहुतायत सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक स्थिति में है… इसमें राहुल गांधी की वायनाड सीट भी है जहां मुस्लिम वोटर करीब 50 फीसदी है।

26 अप्रैल को लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण का मतदान होना है। पहले चरण का मतदान 19 अप्रैल को हो चुका है जिसमें कम मतदान प्रतिशत ने सत्तारूढ़ बीजेपी के केन्द्रीय नेतृत्व को चिंता में डाल दिया है। दूसरे चरण में 88 लोकसभा सीटों पर वोटिंग हैं। केरल की सभी 20 लोकसभा सीटों पर इसी चरण में मतदान हो जाएगा। कर्नाटक की 14 और राजस्थान की 13 लोकसभा सीटों पर भी मतदान होगा।

इसके पहले कि मोदी के बयान के गूढ़ार्थ को समझा जाए एक बार दूसरे चरण की सीटों का गणित समझना जरूरी हो जाता है। इसमें सबसे ज्यादा जरूरी है केरल राज्य जहां पर चल रहे लव जिहाद के किस्से और धार्मिक ध्रुवीकरण के समीकरण का चक्रव्यूह आज तक बीजेपी नहीं भेद पाई है। केरल में हिन्दू आबादी करीब 54 फीसदी है तो मुस्लिम आबादी करीब 26 फीसदी तो ईसाई वहां 18 फीसदी हैं। जबकि सिख बौद्ध और जैन महज 1 फीसदी हैं। यही वो धार्मिक समीकरण का तिलिस्म हैं जिसे बीजेपी इस बार तोड़ने का प्रयास कर रही हैं।

इतना ही नहीं केरल में करीब 15 लोकसभा सीट ऐसी हैं मुस्लिम बहुतायत में हैं। वहीं वायनाड में तो मुस्लिम आबादी करीब 50 फीसदी है जहां से राहुल गांधी पिछले बार जीत कर सांसद चुने गए थे और इस बार भी वायनाड़ के रास्ते दिल्ली पहुंचना चाहते हैं। राज्यवार नजर डालें तो पिक्चर काफी हद तक साफ हो जाती है। आखिर शब्दों पर संयम रखने वाले मोदी ने चुनावी फिजा बदलने वाला ये बयान क्यों दिया? इसके लिए इन सीटों पर नजर डालिए।

इन सीटों पर दूसरे चरण में मतदान

असम: दर्रांग-उदालगुरी, डिफू, करीमगंज, सिलचर और नौगांव।
बिहार: किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया, भागलपुर और बांका।
छत्तीसगढ़: राजनांदगांव, महासमुंद और कांकेर।
जम्मू-कश्मीर: जम्मू लोकसभा ।
कर्नाटक: उडुपी-चिकमगलूर, हासन, दक्षिण कन्नड़, चित्रदुर्ग, तुमकुर, मांड्या, मैसूर, चामराजनगर, बेंगलुरु ग्रामीण, बेंगलुरु उत्तर, बेंगलुरु केंद्रीय, बेंगलुरु दक्षिण,चिकबल्लापुर और कोलार।
केरल: कासरगोड, कन्नूर, वडकरा, वायनाड, कोझिकोड, मलप्पुरम, पोन्नानी, पलक्कड़, अलाथुर, त्रिशूर, चलाकुडी, एर्णाकुलम, इडुक्की, कोट्टायम, अलाप्पुझा, मवेलिक्कारा, पथानमथिट्टा, कोल्लम, अट्टिंगल और तिरुअनंतपुरम।
मध्य प्रदेश: टीकमगढ़, दमोह, खजुराहो, सतना, रीवा और होशंगाबाद।
महाराष्ट्र: बुलढाणा, अकोला, अमरावती, वर्धा, यवतमाल- वाशिम, हिंगोली, नांदेड़ और परभणी।
राजस्थान: टोंक-सवाई माधोपुर, अजमेर, पाली, जोधपुर, बाड़मेर, जालोर, उदयपुर, बांसवाड़ा, चित्तौड़गढ़, राजसमंद, भीलवाड़ा, कोटा और झालावाड़-बारा।
त्रिपुरा: त्रिपुरा पूर्व।
उत्तर प्रदेश: अमरोहा, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर, बुलंदशहर, अलीगढ़ और मथुरा।
पश्चिम बंगाल: दार्जिलिंग, रायगंज और बालूरघाट।

दरअसल देश की 543 लोकसभा सीटों में से 65 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम वोटर जीत और हार में बड़ी भूमिका निभाते हैं। ये वो सीटें हैं जहां मुस्लिम वोटरों की संख्या 30 फीसदी से लेकर 80 फीसदी तक है। वहीं, करीब 35-40 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां इनकी मुस्लिम समुदाय के वोटरों की अच्छी खासी संख्या है। यानि करीब 100 लोकसभा सीट ऐसी हैं जहां अगर वोटों का ध्रुवीकरण हो गया तो भाजपा के लिए उसके लक्ष्य 400 के आंकड़े को हासिल करना आसान हो जाएगा। ऐसे में एक बार फिर ये साफ हो गया विपक्षी कितनी भी कोशिश कर लें वो चुनाव बीजेपी की पिच पर ही लड़ने को मजबूर हैं।

Continue Reading

Trending