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अटल जयंतीः राजनीति में आने से पहले ये काम किया करते थे वाजपेयी, जानिए उनके जीवन से जुड़ी कुछ खास बातें

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नई दिल्ली। भारतरत्न से सम्मानित, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की  जयंती के मौके पर आज पूरा देश उन्हें याद कर रहा है। अटल बिहारी वाजपेयी राजनेता के अलावा हिन्दी के कवि, पत्रकार, और प्रखर वक्ता थे। वह भारत के एक ऐसे सपूत थे जिसके आलोचक भी प्रशंसा करने से गुरेज नहीं करते थे।

पद और सत्ता के लिए वाजपेयी  ने कभी समझौता नहीं किया, वे एक असाधारण व्यक्तित्व के मालिक थे और एक सर्वमान्य नेता होने के साथ-साथ उनका रहन-सहन बिलकुल सादा था। वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर 1924 में ग्वालियर में हुआ था। एक स्कूल शिक्षक के परिवार में  जन्मे वाजपेयी  की प्रारंभिक शिक्षा ग्वालियर के ही विक्टोरिया (अब लक्ष्मीबाई) कॉलेज और कानपुर के डीएवी कॉलेज में हुई।

1942  में भारत छोड़ो आंदोलन में प्रवेश के साथ  अटल बिहारी बाजपेयी ने राजनीती में प्रवेश किया  जिसके कारण उनके बड़े भाई को 23  दिनों तक जेल में रहना पड़ा था। आज़ादी के बाद उन्हें जनसँग का नेता नियुक्त किया गया जिसके पश्चात वाजपेयी जी ने 1957 में उत्तर प्रदेश की बालमपुर की सीट से अपना पहला चुनाव लड़ा।

1996  में अटल बिहारी वाजपेयी पहली बार प्रधानमंत्री बने हलाकि सरकार के  अल्पमत में आने से उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया।मोरार जी देसाई ने  1997 में उन्हें अपनी सरकार का  विदेश मंत्री  नियुक्त किया। आइये जानते है अटल बिहारी वाजपेयी के जीवन से जुडी ख़ास  बातें

राजनीति में आने से पहले ये काम करते थे वाजपेयी

राजनीतिक विज्ञान की  पढ़ाई करने के बाद वाजपेयी जी ने अपना करियर पत्रकार के रूप में  अपने करियर की शुरुआत की। वह राजनीति विज्ञान और विधि के छात्र थे।  कॉलेज के दिनों में ही उनकी रुचि विदेशी मामलों के प्रति बढ़ी रूचि के चलते विभिन्न बहुपक्षीय और द्विपक्षीय मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्होंने अपने इस कौशल का परिचय दिया.राष्ट्र धर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन का संपादन भी  किया। हालांकि 1951 में भारतीय जन संघ में शामिल होने के बाद उन्होंने पत्रकारिता छोड़ दी।

लोकसभा में सबसे पीछे बैठते थे वाजपेयी

वर्ष 1957  में अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा के सदस्य बन चुके थे। बलरामपुर से पहली बार जब वह  लोकसभा सदस्य बनकर सदन में पहुंचे तब उनकेभाषणों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को बेहद प्रभावित किया। विदेश मामलों में वाजपेयी की जबर्दस्त पकड़ को देख  पंडित नेहरू कायल हो गए थे। वाजपेयी  जी उस ज़माने में लोकसभा में सबसे पिछली बेंचों पर बैठते थे, लेकिन इसके बावजूद पंडित नेहरू उनके भाषणों को खासा तवज्जो देते थे।

पहली बार बने पीएम

अटल  बिहारी वाजपेयी तीन बार देश के प्रधानमंत्री बने। वह देश के 10वें प्रधानमंत्री थे. . पहली बार 16 मई 1996 से 1 जून तक, दूसरी बार साल 19 मार्च 1998 से 26 अप्रैल 1999 तक और तीसरी बार 13 अक्टूबर 1999 से 22 मई से 2004 तक।

राष्टपति बनने के लिए किया था एपीजे अब्दुल कलाम को राज़ी

पोखरण टेस्ट के  एक हीरो डा. एपीजे अब्दुल कलम भी थे। 11 मई 1998 को  पोखरण परिक्षण के  बाद से ही वाजपेयी और कलाम के बीच मुलाकातों के दौर बढ़ने लगा और वह दोनों अच्छे दोस्त बन गए थे। जय त्रिवेदी ने अपनी किताब के मुताबिक , 10 जून 2002 को एपीजे अब्दुल कलाम चेन्नई की अन्ना यूनिवर्सिटी में ‘विजन टू मिशन’ पर अपना भाषण दे रहे थे। भाषण के बाद अटल बिहारी का फ़ोन डा. एपीजे अब्दुल कलाम के पास पंहुचा जिसमे उन्होंने डॉ कलाम को राष्ट्रपति के पद पर देखने की इक्छा  ज़ाहिर की  जिसके बाद  डा. एपीजे अब्दुल कलाम भी थे, देश के 11वें राष्ट्रपति बने।

इस एक्ट्रेस के थे बड़े फैन

अटल बिहारी वाजपेयी भारत के सबसे लोकप्रिय राजनेताओं में से एक रहे हैं। राजनीति में रहने के साथ-साथ उनका साहित्य, कविताओं और फिल्मों से भी खास नाता रहा है। फिल्मों से उनका लगाव इसी से समझा जा सकता है कि, हेमा मालिनी की एक फिल्म सीता और गीता उन्हें इतनी पसंद आई थी, उन्होंने उस फिल्म को 25 बार देखा था। इस बात का खुलासा खुद बीजेपी सांसद हेमा मालिनी ने एक कार्यक्रम के दौरान किया था।

यूएन में दिया  ऐतिहासिक भाषण

अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा  में भाषण दिया था। वाजपेयी जी का ये भाषण ऐतिहासिक था क्यूंकि में संयुक्त राष्ट्र महासभा  में ये पहली बार हुआ था कि किसी भारतीय ने हिंदी में भाषण दिया था।

मिले कई सम्मान

भारत के प्रति उनके निस्वार्थ समर्पण और पचास से अधिक सालों तक देश और समाज की सेवा करने के लिए  अटल बिहारी वाजपेयी को भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण दिया गया। 1994 में उन्हें भारत का ‘सर्वश्रेष्ठ सांसद’ चुना गया. उसके बाद 27 मार्च, 2015 को उन्हें भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया।

 

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पहले फेज के वोटर ने बिगाड़ा मोदी का मूड

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सच्चिदा नन्द द्विवेदी एडिटर-इन-चीफ

लखनऊ। लोकसभा चुनाव 2024 का पहला चरण बीत गया। सात चरण में हो रहे चुनावों का ये सबसे बड़ा और पोलिटिकल पार्टीज के लिए लिटमस टेस्ट वाला चरण था। उत्तर प्रदेश की 8 सीटें वो थी जिन पर 2019 में भाजपा का पसीना छूट गया था।

जिस दिन अयोध्या में मर्यादा पुरषोत्तम राम के भव्य राम मंदिर में प्रभु राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा हुई और उसे देख जिस तरह का जन-ज्वार उठा उससे गदगद होकर प्रधानमंत्री पीएम मोदी ने भाजपा और सहयोगी दलों के लिए 18वीं लोकसभा के लिए टारगेट सेट कर दिया 400 सीटों का और नारा दे दिया ‘अबकी बार 400 पार’। दरअसल ये 400 का टारगेट मोदी ने यूं ही नहीं सेट कर दिया। इसके पीछे कहीं न कहीं बीजेपी का कान्फिडन्स और विपक्ष को मानसिक दवाब में घेरने की रणनीति नजर आती है।

शुरुआत में जिस तरह से इंडि गठबंधन बिखरा बिखरा दिखाई दे रहा था उसे देखकर बीजेपी का ये टारगेट कठिन भी नजर नहीं आ रहा था लेकिन जैसे जैसे कयामत की रात यानि मतदान की तारीख पास आती गई विपक्षियों को भी अपने अस्तित्व पर संकट नजर आने लगा और फिर मरता क्या न करता के मुहावरे पर अमल करते हुए सभी एक हो ही गए। दूसरी तरफ बीजेपी को 2014 और 2019 की तरह मोदी मैजिक और राम के नाम पर भरोसा था और उधर उसके वोटर के मन में अबकी बार 400 पार इतना गहरा बैठ गया था कि लगता है उसका वोटर भी घर में बैठ गया और जो मतदान प्रतिशत 2019 में करीब 69 प्रतिशत था वो करीब 60 प्रतिशत पर आकर टिक गया। यानि 9 फीसदी वोटर गर्मी में ac की हवा खा रहा था।

फिर क्या था इन्हीं 9 प्रतिशत मतदाताओं ने सत्तारूढ़ दल यानि मोदी के माथे पर चिंता की सिलवटें ला दी, लेकिन ऐसा नहीं है ये सिलवटें सिर्फ मोदी के माथे पर ही आईं हों ये लकीरें विपक्षी गठबंधन के नेताओं के माथे पर भी थीं और हो भी क्यूँ नहीं क्योंकि evm खुलने के पहले कोई नहीं जानता कि जो वोटर घर में बैठा था वो आखिर कौन था। क्या वो सरकार से नाराज वो व्यक्ति था जिसे विपक्ष मतदान केंद्र तक लाने में सफल नहीं हो पाया या फिर ये वो आदमी था जिसे ये लग रहा था मैं वोट दूँ या न दूँ क्या फरक पड़ता है आएगा तो मोदी ही।

दरअसल उदासीनता की वजह को भी जानना जरूरी है-

2014 में बदलाव की लहर थी जनता भ्रष्टाचार की कहानियाँ सुनकर ऊब चुकी थी
2014 में मोदी पूरे देश के सामने गुजरात मॉडल लेकर आ रहे थे जिसे सोशल मीडिया के धुरंधरों ने हर फोन तक बखूबी पहुंचाया
2014 में मोदी ने जिस तरह देश को अपनी सभाओं से मथ के रख दिया उसका भी जनता पर काफी असर पड़ा
2019 में पुलवामा कांड ने राष्ट्रवाद को जगाया और 2014 में 282 सीट वाली बीजेपी 303 के आँकड़े पर पहुँच गई
लेकिन 2024 में न तो 2014 जैसे एंटी इन्कमबंसी जैसी लहर है और न 2019 जैसा राष्ट्रवाद जैसा

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