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नीतीश कुमार आखिर क्यों दिखा रहे हैं इतना उतावलापन?

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जदयू अध्‍यक्ष नीतीश कुमार, आरएसएस भाजपा का विरोध, नीतीश की राष्‍ट्रीय नेता बनने की चाहत, नीतीश कुमार का उतावलापन, गैर भाजपावाद का नारा

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जदयू अध्‍यक्ष नीतीश कुमार, आरएसएस भाजपा का विरोध, नीतीश की राष्‍ट्रीय नेता बनने की चाहत, नीतीश कुमार का उतावलापन, गैर भाजपावाद का नारा

जदयू के अध्यक्ष पद की कुर्सी संभालते ही बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जिस तरह से भाजपा और आरएसएस पर हमलावर हुए हैं उसकी वजह समझ में नहीं आती। अभी आम चुनावों में पूरे तीन साल बाकी है, अभी से ही प्रधानमंत्री बनने की लालसा इस तरह से नीतीश बाबू पर हावी हो जाएगी यह आश्चर्य जनक है। राष्ट्रीय नेता बनने के लिए नीतीश कुमार जिस तरह जोर लगाए हुए हैं और गैर भाजपावाद का नारा देकर अपनी लिप्सा को पूरा करना चाहते हैं उस पर पूरा विपक्ष ही उनके साथ नहीं है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब पूरा देश यह जानता है कि उप्र जैसे बड़े राज्य को साधे बगैर कोई भी प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब नहीं देख सकता तो नीतीश कुमार ने प्रदेश के विस चुनावों के लिए रालोद जैसे सिर्फ पश्चिमी उप्र में सक्रिय दल से साथ गठजोड़ की कवायद क्यों की?

दूसरा सवाल क्या उप्र में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी को साथ लिए बगैर कोई भी गैर भाजपा या गैर कांग्रेस गठबंधन पूरा हो सकता है? तीसरा सवाल क्या नीतीश कुमार दक्षिण की बड़ी पार्टियों जैसे द्रमुक, अन्नाद्रमुक, टीआरएस, जद (एस) आदि को एक मंच पर लाने में कामयाब हो सकते हैं? सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या कांग्रेस राष्ट्रीय परिदृश्य पर नीतीश कुमार को अपना स्थान लेने देगी?
आज की तारीख में नीतीश कुमार की इस मुहिम को संपूर्ण विपक्ष का ही साथ नहीं मिल रहा है। जद एस ने सवाल उठाया कि नीतीशकुमार गैर भाजपावाद की बात तो करते हैं लेकिन असम में ‘बिहार जैसे शानदार गठबंधन’ के लिए कांग्रेस और आरजेडी का सहयोग क्यों नहीं ले सके?

इंडियन नेशनल लोक दल (आईएनएलडी) नीतीश कुमार के इस जज्बे की प्रशंसा तो कर रहा है, लेकिन वह भी यह चाहता है कि नीतीश कुमार पूरे देश में ऐंटी-कांग्रेस ट्रेंड को ठीक से समझें। दूसरी तरफ बिहार में जेडी(यू) की सहयोगी कांग्रेस का रवैया भी इस मामले में काफी सुस्त है, क्योंकि वह नहीं चाहती है कि बीजेपी विरोधी राजनीतिक पार्टियों की अगुवाई बिहार के मुख्यमंत्री करें और कांग्रेस अपनी राष्ट्रीय हैसियत ही खो दे। ज्यादातर विपक्षी पार्टियां कह रही हैं कि नीतीश कुमार बेवजह उतावलापन दिखा रहे हैं। लेकिन सवाल उठता है कि नीतीश कुमार ऐसा क्यों कर रहे हैं? यह तो संभव नहीं लगता कि नीतीश जैसा राजनीति का चतुर खिलाड़ी उपरोक्त प्रश्नों से वाकिफ न हो तो क्या नीतीश को राजद और कांग्रेस के साथ बिहार का शासन चलाने में असुविधा हो रही है? लगता है कि बिहार की मूल समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए ही नीतीश कुमार बेवजह या सोच समझकर यह उतावलापन दिखा रहे हैं। अच्छा हो नीतीश कुमार इन फालतू के प्रपंचों में पड़ने के बजाय समस्याओं से घिरे अपने प्रदेश की ओर ध्यान दें जिसके लिए जनता ने उन्हें इतना प्रचंड बहुमत दिया है।

नेशनल

दूसरे चरण में धार्मिक ध्रुवीकरण के समीकरण का चक्रव्यूह भेद पाएंगे मोदी!

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सच्चिदा नन्द द्विवेदी एडिटर-इन-चीफ

लखनऊ। राजस्थान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्व पीएम डॉ. मनमोहन सिंह के बयान का जिक्र करते हुए कहा कि अगर कांग्रेस केंद्र में सत्ता में आती है, तो वह लोगों की संपत्ति लेकर मुसलमानों को बांट देगी. इसके बाद ही विकास की रफ्तार पर चलने वाला चुनाव दूसरे चरण के पहले हिन्दू मुस्लिम के बीच बंट गया है। दरअसल मोदी का ये बयान यूं ही नहीं आया है, दूसरे चरण में जहां जहां मतदान होना है वहाँ की बहुतायत सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक स्थिति में है… इसमें राहुल गांधी की वायनाड सीट भी है जहां मुस्लिम वोटर करीब 50 फीसदी है।

26 अप्रैल को लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण का मतदान होना है। पहले चरण का मतदान 19 अप्रैल को हो चुका है जिसमें कम मतदान प्रतिशत ने सत्तारूढ़ बीजेपी के केन्द्रीय नेतृत्व को चिंता में डाल दिया है। दूसरे चरण में 88 लोकसभा सीटों पर वोटिंग हैं। केरल की सभी 20 लोकसभा सीटों पर इसी चरण में मतदान हो जाएगा। कर्नाटक की 14 और राजस्थान की 13 लोकसभा सीटों पर भी मतदान होगा।

इसके पहले कि मोदी के बयान के गूढ़ार्थ को समझा जाए एक बार दूसरे चरण की सीटों का गणित समझना जरूरी हो जाता है। इसमें सबसे ज्यादा जरूरी है केरल राज्य जहां पर चल रहे लव जिहाद के किस्से और धार्मिक ध्रुवीकरण के समीकरण का चक्रव्यूह आज तक बीजेपी नहीं भेद पाई है। केरल में हिन्दू आबादी करीब 54 फीसदी है तो मुस्लिम आबादी करीब 26 फीसदी तो ईसाई वहां 18 फीसदी हैं। जबकि सिख बौद्ध और जैन महज 1 फीसदी हैं। यही वो धार्मिक समीकरण का तिलिस्म हैं जिसे बीजेपी इस बार तोड़ने का प्रयास कर रही हैं।

इतना ही नहीं केरल में करीब 15 लोकसभा सीट ऐसी हैं मुस्लिम बहुतायत में हैं। वहीं वायनाड में तो मुस्लिम आबादी करीब 50 फीसदी है जहां से राहुल गांधी पिछले बार जीत कर सांसद चुने गए थे और इस बार भी वायनाड़ के रास्ते दिल्ली पहुंचना चाहते हैं। राज्यवार नजर डालें तो पिक्चर काफी हद तक साफ हो जाती है। आखिर शब्दों पर संयम रखने वाले मोदी ने चुनावी फिजा बदलने वाला ये बयान क्यों दिया? इसके लिए इन सीटों पर नजर डालिए।

इन सीटों पर दूसरे चरण में मतदान

असम: दर्रांग-उदालगुरी, डिफू, करीमगंज, सिलचर और नौगांव।
बिहार: किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया, भागलपुर और बांका।
छत्तीसगढ़: राजनांदगांव, महासमुंद और कांकेर।
जम्मू-कश्मीर: जम्मू लोकसभा ।
कर्नाटक: उडुपी-चिकमगलूर, हासन, दक्षिण कन्नड़, चित्रदुर्ग, तुमकुर, मांड्या, मैसूर, चामराजनगर, बेंगलुरु ग्रामीण, बेंगलुरु उत्तर, बेंगलुरु केंद्रीय, बेंगलुरु दक्षिण,चिकबल्लापुर और कोलार।
केरल: कासरगोड, कन्नूर, वडकरा, वायनाड, कोझिकोड, मलप्पुरम, पोन्नानी, पलक्कड़, अलाथुर, त्रिशूर, चलाकुडी, एर्णाकुलम, इडुक्की, कोट्टायम, अलाप्पुझा, मवेलिक्कारा, पथानमथिट्टा, कोल्लम, अट्टिंगल और तिरुअनंतपुरम।
मध्य प्रदेश: टीकमगढ़, दमोह, खजुराहो, सतना, रीवा और होशंगाबाद।
महाराष्ट्र: बुलढाणा, अकोला, अमरावती, वर्धा, यवतमाल- वाशिम, हिंगोली, नांदेड़ और परभणी।
राजस्थान: टोंक-सवाई माधोपुर, अजमेर, पाली, जोधपुर, बाड़मेर, जालोर, उदयपुर, बांसवाड़ा, चित्तौड़गढ़, राजसमंद, भीलवाड़ा, कोटा और झालावाड़-बारा।
त्रिपुरा: त्रिपुरा पूर्व।
उत्तर प्रदेश: अमरोहा, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर, बुलंदशहर, अलीगढ़ और मथुरा।
पश्चिम बंगाल: दार्जिलिंग, रायगंज और बालूरघाट।

दरअसल देश की 543 लोकसभा सीटों में से 65 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम वोटर जीत और हार में बड़ी भूमिका निभाते हैं। ये वो सीटें हैं जहां मुस्लिम वोटरों की संख्या 30 फीसदी से लेकर 80 फीसदी तक है। वहीं, करीब 35-40 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां इनकी मुस्लिम समुदाय के वोटरों की अच्छी खासी संख्या है। यानि करीब 100 लोकसभा सीट ऐसी हैं जहां अगर वोटों का ध्रुवीकरण हो गया तो भाजपा के लिए उसके लक्ष्य 400 के आंकड़े को हासिल करना आसान हो जाएगा। ऐसे में एक बार फिर ये साफ हो गया विपक्षी कितनी भी कोशिश कर लें वो चुनाव बीजेपी की पिच पर ही लड़ने को मजबूर हैं।

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