आध्यात्म
दास अपने स्वामी से कुछ चाहता है वह दास नहीं है
जो सवमी सों चहइ कछु, सो नहिं दास कहाय।
सोउ स्वामी न कहाय जो, दासहिं आस लगाय।।16।।
भावार्थ- जो दास अपने स्वामी से कुछ चाहता है। वह दास नहीं है। इसी प्रकार जो स्वामी अपने दास से कुछ आशा रखता है, वह वास्तविक स्वामी नहीं है।
व्याख्या- भागवत में प्रह्लाद ने बड़ा ही सुन्दर निरूपण किया है। यथा-
यस्त आशिष आशास्ते न स भृत्यः स वै वणिक् ।
(भाग. 7-10-4)
अर्थात् दास एवं स्वामी दोनों ही निष्काम होने चाहिये। संसारी दास एवं स्वामी दोनों ही स्वार्थी होते हैं। अतः सदा ही मानसिक अशांति रहती है। किंतु ईश्वरीस क्षेत्र में दोनों ही निष्काम होते हैं। वास्तव में भगवान् तो परिपूर्ण है ही वह मायाबद्ध से क्या चाहेगा? क्यों चाहेगा? और जीव क्या देगा?
किंतु निष्काम भक्त भी ऐसा ही हो जाता है। यदि कोई मूर्ख दास कहे कि हमने भी अपना सर्वस्व दिया है तो सोचो कि उसका सर्वस्व है क्या? गंदा तन, गंदा मन आदि ही तो है। फिर वह भी तो स्वामी का ही दिया हुआ है। जीव का जीवन भी अपना नहीं है। फिर और क्या देगा?
हाँ- स्वामी ऐसा दयालु है कि जीव का प्रेमयुक्त दिया हुआ सब कुछ सहर्ष ले लेता है। यथा-
पंच पुष्पं फलं तोयं यो मे भक् त्या प्रयच्छति।
तदहं भक् त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।
(गीता 9-26, भाग. 10-81-4)
सारांश यह कि निष्काम दास एवं स्वामी दोनों दाता बन जाते हैं जबकि संसार में दोनों याचक बने रहते हैं। ऐसे निष्काम प्रेम को नारद सरीखे अवतार ने भी अनिर्वचनीय कहा है। इस कथा के प्रेम में विभोर होकर स्वामी स्वयं को दास मान बैठता है। एवं दास स्वयं को स्वामी मान लेता है। भागवत कहती है। यथा-
अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतंत्र इव द्विज।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः।।
(भाग. 9-4-63)
पुनः भागवत कहती है। यथा-
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ् घ्रिरेणुभिः।
(भाग. 11-14-16)
अर्थात् मैं ऐसे दास के हाथ की कथपुतली बन जाता हूँ। उनके चरणों की रज पाने के लिये उनके पीछे-पीछे चलता हूँ। हनुमान जी से भगवान् राम कहते हैं। यथा-
एकैकस्योपकारस्य प्राणान् दास्यामि ते कपे।
शेषस्येहोपकाराणां भवाम ऋणिनो वयम् ।।
(वा.रा.)
अर्थात् हनुमान के एक उपकार के बदले में प्राण देना होगा। शेष उपकारों का ऋणी तब भी बना रहना होगा।
सख्यभाव में भी सखाओं का घोड़ा बन जाते हैं। यथा-
उवाह भगवान् कृष्णः श्री दामानं पराजितः।
वृषभं भद्रसेनस्तु प्रलम्बो रोहिणीसुतम् ।।
(भाग. 10-18-24)
गोपियां से यहां तक कहा है-
न पारयेऽहं निरवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि वः।
या माभजन् दुर्जरगेह श्रृंखलाः संवृश् च्य तद् वः प्रतियातु साधुना।।
(भाग. 10-32-22)
अर्थात् देवों की आयु में भी तुम लोगों के ऋण से उऋण न होऊँगा।
एक गोपी कहती है कि प्रति गोबर की टोकरी उठवाने पर एक लोंदा माखन दूँगी। बालकृष्ण तैयार हो गये। किंतु दोनों अंगूठा छाप।
अतः यह तय हुआ कि प्रति टोकरी उठाने पर नंदलाल के गाल पर एक गोबर का टीका लगाया जाय। इस प्रकार टीका लगाते लगाते गाल एवं भाल गोबरमय हो गया। फिर घर ले जाकर दर्पण दिखाती है। बलिहारी है ऐसे प्रेम की-।
गोमय मंडित भाल कपोलम्।
राधे राधे राधे राधे राधे राधे
आध्यात्म
आज पूरा देश मना रहा रामनवमी, जानिए इसके पीछे की पूरी पौराणिक कहानी
नई दिल्ली। आज पूरे देश में रामनवमी का त्यौहार बड़ी धूम धाम से मनाया जा रहा है। पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक इस दिन भगवान राम का जन्म हुआ था। जो विष्णु का सातवां अवतार थे। रामनवमी का त्यौहार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को मनाया जाता है। आइये जानते हैं इसके पीछे की पौराणिक कहानी।
पौराणिक कथाओं के मुताबिक भगवान राम ने भी मां दुर्गा की पूजा की थी, जिससे कि उन्हें युद्ध के समय विजय मिली थी। साथ ही माना जाता है इस दिन गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस की रचना का आरंभ किया। राम नवमी का व्रत जो भी करता है वह व्यक्ति पापों से मुक्त होता है और साथ ही उसे शुभ फल प्रदान होता है
रामनवमी का इतिहास-
महाकाव्य रामायण के अनुसार अयोध्या के राजा दशरथ की तीन पत्नियां थी। कौशल्या, सुमित्रा और कैकयी। शादी को काफी समय बीत जाने के बाद भी राजा दशरथ के घर किसी बालक की किलकारी नहीं गूंजी थी। इसके उपचार के लिए ऋषि वशिष्ट ने राजा दशरथ से पुत्र प्राप्ति के लिए कमेश्टी यज्ञ कराने के लिए कहा। जिसे सुनकर दशरथ खुश हो गए और उन्होंने महर्षि रुशया शरुंगा से यज्ञ करने की विन्नती की। महर्षि ने दशरथ की विन्नती स्वीकार कर ली। यज्ञ के दौरान महर्षि ने तीनों रानियों को प्रसाद के रूप में खाने के लिए खीर दी। इसके कुछ दिनों बाद ही तीनों रानियां गर्भवती हो गईं।
नौ माह बाद चैत्र मास में राजा दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या ने भगवान राम को जन्म दिया, कैकयी ने भरत को और सुमित्रा ने दो जुड़वा बच्चे लक्ष्मण और शत्रुघन को जन्म दिया। भगवान विष्णु ने श्री राम के रूप में धरती पर जन्म इसलिए लिया ताकि वे दुष्ट प्राणियों का नरसंहार कर सके।
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